(This poem is a representation of our glorious childhood which almost everyone cherishes!)
चलो समय के रथ को मोड़ लें अतीत में
किताबों का बस्ता और बचपन बुलाता है!
छूटे मकानों में जा छिप कर बैठें
बारिशों में नहाएं बूंदों को पकड़ें
आंगन में बहते हुए तेज पानी में
कागज की कश्ती का नर्तन बुलाता है!
बुलाते हरे खेत बुलाती वो सरसों है
गलियां बुलातीं और आँगन बुलाता है!
पीतल की थाली में गुड़ संग रोटी
दूध दही चटनी और मक्खन बुलाता है!
हरे पेड़ पर बैठा चिड़ियों का जोड़ा
खिड़की से दिखता मनभावन बुलाता है!
मम्मी की गोदी में नन्ही अठखेली
नयी खिलती कलियों यौवन बुलाता है!
दबे पांव जा अम्माजी को डरा उनकी
ऐनक छुपाने का आनंद बुलाता है!
जब से मगर हम मुए शहर आ बसे हैं
न चाचा न मामा न मौसा बुलाता है!
भरी भीड़ में खुद को पाते अकेला
मशरूफ सब कौन किसको बुलाता है!
बहुमंज़िला पिंजरों के बंद कमरों में
धंसे बिस्तरों में, खोये सीरियलों में,
सिमटा सा जीवन है थका हुआ बदन
नींद नहीं आती न ख्वाब कोई बुलाता है!
है मंज़र कैसा यह तेरे शहर का
आखिर में खुद को खुदा ही बुलाता है!