वस्ल-ए-यार से दिल को सुकून आया है
तूने ख़्वाबों को जब से मेरे सजाया है
बयां करूँ क्या तुझे ऐ मेरे हमदम
तेरे दम से ही मैंने ये मुकाम पाया है
गम की पनाहों में खो रहा था मैं तो
कैद ज़िन्दगी थी रो रहा था मैं तो
ज़ख्मों को दिल के सहला के तूने
दिया ख़्वाबों का फिर से जलाया है
राह-ए-मंज़िल में चूर थे ये कदम
बाजी-ए-ज़िन्दगी जैसे हार गए थे हम
नाखुदा बन के सफीना को तूने मेरे
गहरे तूफां में साहिल पे लगाया है
अब जो थामा है हाथ तो न जाने दुँगा
अंजुम-ए-गर्दिश न कभी आने दुँगा
इश्क धीरे से कान में कह आया है
अब तू ही ज़िन्दगी का सरमाया है