चंद शेर अर्ज हैं!

बदहवास दौड़ती फिर रही है ज़िन्दगी
धुआं धुआं गर्द सिमटती शहरवालों में

आदमी ही आदमी मिलते तो है दुकानों में
आदमी से आदमी मिलता नहीं मकानों में

जश्न मनाने में करोड़ों फूंक देते हैं लोग
बिलखते बच्चे कहीं हालात की पनाहों में

अधूरी सी लगती है शख्शियत आजकल
जाने क्या छोड़ आये हैं उन निगाहों में

शम्मा बुझेगी कब या जलेगी कब तलाक
चर्चे इस बात के नहीं होते अब परवानों में

उसके ज़नाज़े में उमड़ आया था शहर तमाम
एक चेहरा मगर नहीं था शामिल मेहमानों में

वो आदम की बेटी थी जो जला दी गयी
क्या ख़त्म हो गए हैं ज़ज़्बात हुक़्मरानों में

जो देखा आईना तो उन्हें मालूम हुआ
क्यों मशहूर हुए हैं जनाब दिलवालों में

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