तुम हो, हूँ मैं भी यहीं
दरमियाँ दोनों के मगर
कुछ भी अब बाकी नहीं
सच तो है और फ़िक्र भी
तेरे अफसानों में अब
मेरा ज़िक्र क्यों नहीं
तुम संवरते थे जिसमे
आईना था मैं कभी
बहार थे तुम जिसकी
वो गुलसितां था मैं ही
है दिल-ए-आरज़ू मगर
दिल-ए-बेसब्र क्यों नहीं
तुम्हें माँगा था खुदा से
हमने दुआओं की तरह
आये थे तुम करीब
मांगी मुरादों की तरह
दिल-ए-अनजान मगर
धड़कता अब क्यों नहीं
आईना अब तोड़ दिया
बहारों ने मुह मोड़ लिया
एक बस तुम क्या गए
किस्मत ने दामन छोड़ दिया
बाकी है बस याद मगर
मयस्सर तुम क्यों नहीं