जग से तुमने ही मिलवाया
कौन है क्या सब मुझे बताया
परमेश्वर का रूप तुझे माँ
देख समझ में आया
मेरी यह सामर्थ्य कहाँ
कि तेरा चरित बता दूँ
माँ तुमको क्या संज्ञा दूँ
जाने कौन सा ज्ञान था
या कोई जादू टोना था
बिन बोले क्या मुझे चाहिए
तुमको समझ में आता था
ज्ञात नहींअब तक कैसे
मैं झूठे बात बना दूँ
माँ तुमको क्या संज्ञा दूँ
मेरी ख़ुशी में खुश हो जाती
मेरे दुःख में मेरे रो जाती
छोटी छोटी जीत में मेरी
तू कितना इतराती
कोई नहीं है साथी जिसको
दिल के जख्म दिखा दूँ
माँ तुमको क्या संज्ञा दूँ
प्यार की कच्ची डोर से
कैसे घर को बांधे रखती
हम सब की माँ बागडोर
तू कैसे थामे रहती
मैं टुटा मोती कैसे
माला का भेद बता दूँ
माँ तुमको क्या संज्ञा दूँ
तेरी महिमा तेरा ज्ञान
सहने की ताक़त महान
त्याग तपस्या और बलिदान
कैसे शब्दों में सिमटा दूँ
माँ तुमको क्या संज्ञा दूँ
बहुत खूबसूरत।
सच ही तो है, माँ को क्या संज्ञा दे सकते हैं
भावों को शब्दों में पिरोकर को कविता रूपी माला तैयार की है अवनीत जी आपने, वो सभी माताओं के चरणों मे अर्पण।
इस सुंदर रचना के लिए आपको बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
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