पैंट पहना तो आंसू भर आये
मुद्दतें हो गयीं है ठुकराए
पैंट पहना तो आंसू भर आये
निक्कर टी- शर्ट चप्पल में गुजरा
मुँह पर लंगोटी कैसे हुए गुजरा
वक्त भुला नहाये न नहाये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
शर्ट हसरत से तकती थी हमको
बेल्ट जूते बुलाते थे हमको
एक अरसा हुआ बल कटाये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
सूट करता नहीं सूट बिलकुल
पहना उसको बदन हुआ व्याकुल
पेट निकला सब कपडे कसाये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
गाड़ी खड़ी जैसे दूध बिन भैंस
सड़कों पर जो लगाती थी रेस
उस पर जाते हैं कपडे सुखाये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
लॉकडाऊन ने ‘ग्रह्णु’ बनाये
बर्तन कपडे और पोछा लुभाये
ऑफिस जाने में अब आलस आये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
COVID तुझे लगे मेरी हाये
पैंट पहना तो आंसू भर आये
(नोट: रचना में नया शब्द ‘ग्रह्णु’ गृहणी के पुल्लिंग
रूप में लिया गया है, जो लॉकडाऊन की ही देन है )