मैं लिखता हूँ लिख लेता हूँ
कुछ अपने मन में बात छिपी
कुछ जग बीती कह देता हूँ
हाँ थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ
सूने मन के भीतर से जब
धुंध छिटकने लगती है
दिल के गहरे ज़ख्मों से
चिंगारी रिसने लगती है
मैं बंद आँखें कर लेता हूँ
पीड़ा में कुछ लिख देता हूँ
लिखते हैं लोग दीवारों पर
लिखते पेड़ों शौचालयों पर
दिल के गुब्बार रेखांकित हैं
सरकारी मीनारों पर
मैं तुमसे मुखातिब होता हूँ
हाल-ए-दिल लिख देता हूँ
मन की बातें सब करते हैं
मेरा तेरा है ज़िक्र किधर
तू अपना दुःख कह दे मुझसे
थामें एक दूजे को मिलकर
उम्मीद दिलों में कायम हो
शब्दों से दिलासे देता हूँ
बस यूँ ही कुछ लिख देता हूँ