यह खाना जो खाते हम तीन पहर हैं
है आधा यह अमृत और आधा ज़हर है
हो अगर माफिक तो देता है ताकत
बेहिसाब हो जाये तो जां की है आफत
कैसा घिनौना यह चलन आजकल है
कि झूठे खाने को फेंकना फैशन है
शादी जन्मदिन या कोई पार्टी हो
सड़ते हुए खाने पे मक्खी नर्तन है
यह खाना अगर गरीब बस्ती में जाता
कितने घरों की यह भूख मिटाता
सड़क पर वो खाना लावारिस पड़ा है
गिरी मानसिकता बयां कर रहा है
सड़ता खाना जो हम फेंक आते हैं
उसको बेचारे पशु मुंह लगाते हैं
भूख से हैं मजबूर नहीं जां पाते हैं
ऐसा खाना जानवर भी नहीं खाते हैं
पैसा बेहद है पैसे वालों की ज़िद है
कीमत खाने की किसको फिकर है
कोई फाके से तो कोई खाने से मरता
वाह मेरे मौला वाह वाह मेरे कर्त्ता